जबसे होश संभाला है मुझे पिताजी के इतना करीब रहने का मौका कभी नही मिला जितना कि पिछले पांच छः महीने से मिला है। वैसे भी हमारा रिश्ता साजन फ़िल्म के कादर खान और सलमान भाई वाला बिल्कुल नही है। शेर के सामने बकरी वाला है। पर जबसे कोरोना का संकट आया है वो काफी पोजेटिव रहते हैं और मेरे कहानी में दिलचस्पी को देखते हुए प्रोटोकॉल तोड़कर रोज कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं । कभी मुहावरा फेंक देते हैं तो कभी इमरजेंसी के किस्से सुनाने लगते है। बेचारे करे भी तो क्या बंद कमरे में और तो कोई मिल नही रहा जिससे वो कुछ बतिया सके। मेरे साथ उन्हें भी कैद मिल गई है । दीवाली के बाद किसी कारण से घर गया था वापसी में मम्मी पापा भी आ गए और तब से यहां फंसे हुए हैं । रोज शाम को पापा जी पुराने किस्से सुनाते रहते है।
कभी सिमरिया में गंगा पर राजेंद्र पल बनने की कहानी कि जब नेहरू जी पुल का उद्घाटन करने आये थे तब कैसी भगदड़ मची थी और कितने लोग उस भीषण गर्मी में पानी के बिना मर गए थे । इतनी भीड़ थी कि पानी ब्लैक में बिक रहा था फिर पुल बनने का दुष्परिणाम- गंगा की धार मुड़ गई थी और रास्ता छोड़ दिया था , सरकार ने उस बारे में कुछ सोचा ही नही था कि ऐसा भी हो सकता है या जानबूझ कर अनजान बनी रही थी। और कितने नदी किनारे बसे बसाए गांव जहां रेलवे स्टेशन भी हुआ करता था , तबाह हो गए। खेत पेड़ सब नदी के अंदर समा गए। हमारे पूर्वजो के भी सैकड़ो बीघे खेत कट गए। संपन्न किसान भिखारी बन गए थे। इस बारे में तो अलग से एक किताब लिखी जा सकती है।
फिर एक दिन बोले कि कोरोना से पहले भी दुनिया में हैजा, चेचक और प्लेग जैसी बीमारियां कोहराम मचा चुकी है। और असंख्य लोगों को लील चुकी है ऐसी महामारी लगभग सौ साल बाद आती ही है जिसमे गांव के गांव साफ हो जाते है। बता रहे थे कि हमलोगों के परदादा के समय ऐसे ही प्लेग फैला था सौ सौ लोगो के कुनबे में इक्के दुक्के लोग बचते थे वो भी जो कही और जाकर बस गए होते थे या गांव छोड़कर कही भाग जाते थे। कोई नही बचा था। लोग इतनी तेजी से मर रहे थे कि लाशों को अर्थी के बजाय खाट पर ही ले जाकर जला डालते थे वही परंपरा हमारे यहाँ अब भी कायम है ।एक को फूंक कर आते थे तबतक दूसरा तैयार रहता था। यही हाल पूरे देश मे था । प्लेग से काफी लोगों की जान चली गई थी। गुजरात इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था। ब्रिटिश सरकार को इस बीमारी पर नियंत्रण करने में पूरे बीस साल लग गए थे। लंदन के अखबारों ने इस बीमारी की तुलना 'मध्यकालीन शाप' से की थी।
उसी दौर की एक कहानी मैंने भी पढ़ी थी जिसकी डीटेल्स में ये याद है कि कहानी हंस में छपी थी। जिसका शीर्षक एक संख्या थी जो उस गांव में मरने वालों की तादाद थी शायद "सोलह हजार चार सौ छियालीस" या कुछ ऐसा ही।
मिथिलांचल के एक गांव में फैली महामारी का दिल दहला देने वाला चित्रण था।एक एक करके सारे बड़े मर चुके हैं कुछ बच्चे ही बच गए हैं और वो बाकी मर रहे लोगो को भीषण गर्मी में तपती रेत पर मीलों चलते हुए गंगा किनारे जाकर अंतिम संस्कार करते है। कुनैन एक बहुत बड़ी चीज है जो सिर्फ घोड़े पर चलने वाले अंग्रेजो के पास है और वो अगर मिल जाये तो सबकी जान बच सकती है। मगर दरिद्रता और गुलामी इसमे बाधक है बच्चे बस उसकी कल्पना कर रहे हैं कि कुनैन कैसा होगा कितना बड़ा और सुंदर होगा और एक दिन वो सब उसे ढूंढ लेंगे। उन्हें सपने भी कुनैन के आते है। पर फिलहाल उनकी आंखों के सामने मां बाप चाचा दादा सब मर रहे हैं एक लाश जला कर आते हैं तो दूसरा खून की उल्टियां करता मिलता है । फिर तीसरा। इनका पूरा समय लाश ले जाकर जलाने और आने में बीत रहा है ।रास्ते मे ही बाते होती है ।पूरा गांव खत्म हो जाता है।बच्चों की आंखों से आंसू सूख चुके है। वो बस गर्मी और तपती रेत में पांवो में पड़ रहे छालो से परेशान है।
कहानी के अंत मे बच्चा अपनी माँ का संस्कार करने निकलता है उसे मिलाकर लाश ढोने वाले चार लोगों के अलावा अब कोई नही बचा है सिवाय उसकी छोटी बहन के जो घर पर अकेले नही रहना चाहती इसलिए उसे भी साथ ले लेते है और नदी किनारे पेड़ के नीचे बिठा कर लाश जलाने लगते हैं । जब लौट कर आते हैं तब तक लड़की की भी तबियत खराब होने लगती है।बच्चों को गांव लौटना बेमतलब जान पड़ता है वो वही पेड़ के नीचे बैठ कर उसके मरने का इंतज़ार करने लगते हैं कि अब घर कौन जाए थोड़ी देर सुस्ता लेते हैं तब तक मर जाएगी फिर सीधा इसे भी जलाकर ही लौटेंगे।
आसपास घट रही घटनाओं के बीच कमरे में बंद रहकर लगता है कि हम भी उन बच्चों की तरह कुनैन (quinowin) के सपने देखते हुए अपनो के मरने का इंतज़ार कर रहे है फिर लगता है ठीक है कोरोना आज तू मार ले लेकिन याद रखना एक वो दिन भी आएगा जब तू एक टुच्चे झोलाछाप डॉक्टर की गोली सहने लायक नही रहेगा तेरी दवाई झोला छाप डॉक्टर भी गन्दी हैंडराइटिंग में लिखेगा और पांच दस रूपए के पत्ते में तेरी दवा बिकेगी।
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