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आलोचना और बुराई

आलोचना और बुराई
अक्सर लोग आलोचना शब्द का सहारा लेकर एक-दूसरे की बुराई करते हैं. लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, आलोचना का अर्थ किसी की बुराई करना मात्र ही नहीं होता. खासकर अपनी कमजोरियों और बुराइयों को छुपाकर, दूसरों की बुराई करने को आलोचना नहीं कह सकते. आलोचना का अर्थ होता है, किसी तथ्य के सभी पहलुओं की गहन जांच करना. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है. दरअसल यह सब हमारी अवसरवादिता की देन है. आइये कुछ उदाहरणों से आलोचना शब्द के दुरुपयोग को समझते हैं  ---
हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।
 मैंने दिल्ली विश्वविद्यायल से ग्रेजुएशन करने के बाद अपने कॉलेज के प्रोफेसर (जिन्हें मित्र कहना ज्यादा ठीक रहेगा)के कहने पर मै और मेरे एक और सहपाठी ने  जे एन यू  में m a में दाखिले का फॉर्म भरा  साथ ही उन्होंने हिदायत भी दी कि  हिंदी साहित्य का इतिहास विषय पर पूछे गए प्रश्न पत्र में  डॉक्टर रामचंद्र शुक्ल  की किताब नही हज़ारी प्रसाद द्विवेदी  के लिखे इतिहास से ही कोट करना । वरना तुम्हे दक्षिणपंथी समझ लिया  जाएगा और एडमिशन नही होगा मतलब ऐसा ही दूसरे सवालों पर भी करना था।  हालांकि इसकी नौबत नही आई में थियेटर में ही लगा रहा और  न ही मुझे ऐसे मैन्यूपुलेटेड जवाब देने थे। मेरा दोस्त ने वही किया और जे एन यू से निकल कर ndtv में काम कर रहा है  जहां इस तरह की प्रवृति हो। जरूर विरोध करना चाहिए और उसके बुनियाद पर सवाल भी उठाना चाहिए इसे  बुराई नही कह सकते। आप दूसरा उदाहरण लो हिन्दू धर्म के कुछ कट्टरपंथी धर्म-परिवर्तन की बुराई करते रहते हैं, और इसका हौआ खड़ा करके सामाजिक शान्ति को भंग करने की कोशिश में लगे रहते हैं. इसके पीछे इनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ अपना वर्चस्व स्थापित करना ही होता है. इन लोगों को अभी भी यह गलतफहमी है कि, ये समाज के सर्वेसर्वा हैं. कभी भी इनका ध्यान इस पर नहीं होता कि, कोई इंसान अपना धर्म-परिवर्तन क्यों करता है. कुछ अपवादों को छोड़ दे तो अधिकतर धर्म-परिवर्तन भारतीय समाज के दबे-कुचले और वंचित वर्ग के लोग करते हैं. जाहिर है, ऐसा वे अपनी स्थिति में बेहतरी के उद्देश्य से करते हैं, चाहे वो हो या ना हो.
आजकल कुछ तथाकथित दलित चिंतकों द्वारा काल्पनिक असुरों को अपना पूर्वज मानने की होड़ लगी है. ऐसा करके वे उन सभी काल्पनिक देवी-देवताओं को मान्यता प्रदान करते हैं, जिनके सहारे उनके शोषण का पोषण होता है. ये चिंतक जितनी जल्दी इस जाल से बाहर निकल आये तो उनके लिये बेहतर होगा. इसी प्रकार खुद को दलित नेता घोषित करने वाले लोग भी सिर्फ अपनी बेहतरी का ही कार्य करते हैं. इक्का-दुक्का कार्य करना तो उनकी मजबूरी होती है. यही कारण है कि, दलित और पिछड़े समाज को जितना आगे आना चाहिये था, उतना वोआगे आ नहीं पाया. दरअसल जाति के दायरे से बाहर निकलते ही ये लोग वर्ग के चंगुल में फंस जाते हैं. इन लोगों का कार्य है, स्वर्णों की बुराई करना. लेकिन अपने समाज की बेहतरी के कार्यों से इन्हें परहेज है. वर्ना कम से कम ये जातियाँ आपस का जातिवाद तो खत्म कर ही लेतीं. अगर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जातियों के लोग आपस की जातियों को खत्म करके पारस्‍परिक अंतर्संबंधों (जैसे; विवाह सम्बंध) स्थापित करतीं तो जातिव्यवस्था की जड़ों को बहुत हद तक कमजोर किया जा सकता था. इस कार्य का फायदा यह भी है कि, इससे जीवनसाथी चुनने के बेहतर विकल्प मिलतें, जिससे दहेज प्रथा जैसी बुराइयों को काफी हद तक कम किया जा सकता है. साथ ही यह सभी जातियाँ आरक्षित वर्गों से होने के कारण इनके अधिकारों और विकास के अवसरों का हनन भी नहीं हो पाता. लेकिन सच्चाई तो यह है कि, सिर्फ स्वर्णों को कोसने वाले ये लोग खुद भी एक-दूसरे के साथ स्वर्णवादी या ब्राह्मणवादी व्यवहार करते हैं.

 इसी प्रकार समाज के तथाकथित स्वर्ण समुदाय के लोग सिर्फ अपने आप को योग्य और उच्च समझने की गलतफहमी में अभी तक जी रहें हैं. और सच तो यह हैं कि, अभी भी अधिकांश स्वर्ण अपनी गलतियों के लिये शर्मिन्दा नहीं हैं, बल्कि ये अभी भी उसी युग के आने का सपना संजोये बैठे हैं, जिसमे यें कुछ इंसानों को जानवर तुल्य मानते थे. अगर यह समाज अपनी गलतियों पर पछतावा करते हुये, ईमानदारी से वंचित वर्गों को उनका अधिकार दिलाने में सहायता करे तो इससे समाज मजबूत होगा. लेकिन हाल-फिलहाल तक जिस प्रकार से स्वर्णों द्वारा दलितों पर जिस प्रकार से अत्याचार किये जा रहे हैं और कुतर्कों द्वारा जातिगत-आरक्षण का विरोध किया जाता है, उससे तो यह संभव नहीं दिखता. अंत में मैं इतना कहूँगा कि जो इंसान खुद की कमी नहीं देख सकता उसे दूसरों की बुराई करने का कोई हक नहीं है. और अपनी बुराइयों को दूर करने के ईमानदार कार्य होने से ही वह सच्चा इंसान बन सकता है.

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