विचारधारा का वायरस।
विचारधारा किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति और फिर उसके अनुयायियों द्वारा फैलाया गया एक ऐसा वायरस है जो व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह को उनकी सहमति या अनुमति के बिना उनके दिमाग को संक्रमित कर देता है और इंसान को इसका पता भी नही चलता । संक्रमित व्यक्ति के दिमाग के अंदर ऐसा विश्वास या दृष्टिकोण पैदा हो जाता है जिनके आधार पर वह किसी समाज , या व्यक्तियों के समूह , या समान विचार रखने वालों या राजनीतिक संगठन को उचित या अनुचित ठहराता है। इसका न तो कोई वैज्ञानिक आधार होता है न ही जांच पड़ताल करने की जरूरत। संक्रमित व्यक्ति उसे परम सत्य मान कर अनुसरण करना शुरू कर देते हैं
धीरे धीरे ये एक खतरनाक रूप ले लेता है और बड़े से बड़े पत्रकार, कलाकार, लेखक ,इतिहासकार, निबंधकार, बुद्धिजीवी,के सोचने समझने की ताकत और निष्पक्ष निर्णय लेने की शक्ति को पंगु बना देता है।
वैसे तो हर व्यक्ति की सोच - विचार में अंतर होता है किसी के अनुसार, कोई बात सही हो सकती है तथा किसी को वही बात गलत लग सकती है। पर विचाधारा के वायरस की चपेट में आने पर इस व्यक्तिगत प्रतिभा का लोप हो जाता है औरअधिकांश लोग किसी खास विचारधारा के प्रति आकर्षित हो जाते हैं हालाँकि ऐसी कई विचारधाराएं हमें देखने को मिलती हैं, जिनका प्रभाव न सिर्फ भारत पर है बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर है। उन विचारधाराओं ने हमारे समाज तथा सम्पूर्ण विश्व को बहुत कुछ दिया है। पर इंसान या दुनिया के अन्य चीज़ों की तरह विचारधारा की भी एक हद होती है और समस्या तब उत्पन्न होती है हमारी सोच किसी खास विचारधारा के वायरस से ग्रसित हो जाती है ।
विचारधारा का वायरस तीन प्रकार का होता है।
दक्षिणपंथी
वामपंथी
उदारपंथी
दक्षिणपंथी वायरस से प्रभावित लोगो को राष्टवादी, फासिस्ट, हिटलरवादी, कट्टरपंथी, चरमपंथी, पाखंडी, आर्यवादी, सांप्रदायिक कहा जाता है। भारत में तो इन्हें संघी, भाजपाई, नकली देशप्रमी, और हिन्दू आतंकवादी भी कहते है।
वामपंथी वायरस से प्रभावित लोगो को परिवर्तनवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, समाजवादी, माओवादी, नक्सली आदि कहा जाता है। कार्ल मार्क्स इसके जनक थे और इन लोगो का सबसे पहला सफल प्रयोग रूस में सन 1917 में हुआ था।
उदारपंथी वायरस से प्रभावित लोग लोकतंत्र समर्थक, उदारवादी, प्रगतिशील, आधुनिक आदि कई नामो से जाने जाते है। हालाँकि भारत के अन्दर उदारपंथी, वामपंथियों की एक शाखा की तरह से ही संचालित होती है। क्योंकि इनका दुश्मन एक ही है दक्षिणपंथी विचारधारा
इस संसार में कोई एक विचारधारा ऐसी नहीं है, जो बिल्कुल सही हो। जैसे ही हम किसी विचारधारा का अंध समर्थक बन जाते हैं, हमारे अंदर का निष्पक्ष दर्शक, निष्पक्ष वक्ता तथा निष्पक्ष लेखक सब उसी दिन से मर जाता है। हमारी आंखों पर एक चश्मा लग जाता है और हम उस चश्मे से ही देखना शुरू कर देते हैं ।
उदाहरण के लिए, यदि कोई इतिहासकार किसी एक खास विचारधारा के प्रति समर्पित है तो क्या वह अपने समय का सही वर्णन कर पायेगा? उसे तो साफ-साफ दिखेगा ही नहीं। चश्मे के कारण वह किसी मुद्दे या घटना का एक ही पहलू देख पायेगा। अब सोचिये, उसके द्वारा लिखा गया इतिहास देश के भावी पाठकों को भला क्या दे पाएगा? वह चाहे तो किसी महान व्यक्तित्व को नीचा दिखा सकता है और चाहे तो किसी बिना योग्यता वाले व्यक्ति का महिमामंडन करके उसे इतिहास का शिखर पुरुष बना सकता है।
उसी तरह एक पत्रकार, एक स्तम्भकार, एक शिक्षक भी इस विचारधारा से ग्रसित होकर अपने दायित्वों से दूर चला जाता है। लाख समझाने के बाद भी वह व्यक्ति सही और गलत का निर्णय निष्पक्ष तरीके से नहीं कर पाता है। सोचने की शक्ति कम हो जाती है लेकिन हमें यह बिल्कुल भी मालूम नहीं चल पाता है। हमें लगता है कि हम जो कह रहे हैं सही है और हमारी सोच या विचारधारा सबसे महान है। उसी के आधार पर हम एक मापदण्ड तैयार कर लेते हैं तथा अपना परिणाम सुना देते हैं। उसके बाद तर्कों से उसे प्रमाणित करने का प्रयास करने लगते हैं तथा आत्ममंथन करने के बारे में सोचते भी नहीं।
जब भी कुछ लिखिए, जब भी कुछ बोलिये, बस अपने आप से एक प्रश्न कीजिये कि आप किसी विचारधारा की गिरफ्त में तो नहीं हैं ना?
हमे हमेशा खुद से प्रश्न करते रहना चाहिए यही हमारे जीवित होने का प्रमाण है । मेरे हिसाब से एक बहुत ही महत्वपूर्ण अधिकार है राय की स्वतंत्रता का अधिकार, अंतरात्मा की स्वतंत्रता का अधिकार, और सबसे महत्वपूर्ण असहमति का अधिकार.’ एक समाज जो पारंपरिक विचारधाराओ ,और पुराने नियमों से ही चिपका रहता है वो पतन की ओर जाता है ।
खुद सोचिये, फिर से सोचिये, बार-बार सोचिये। परिस्थिति के अनुसार, हर विचारधारा का सम्मान हो तथा हर विचारधारा का विरोध हो। लकीर का फकीर बन कर रहना अपनी आत्मा को बेचने जैसा है।
विचारधारा किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति और फिर उसके अनुयायियों द्वारा फैलाया गया एक ऐसा वायरस है जो व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह को उनकी सहमति या अनुमति के बिना उनके दिमाग को संक्रमित कर देता है और इंसान को इसका पता भी नही चलता । संक्रमित व्यक्ति के दिमाग के अंदर ऐसा विश्वास या दृष्टिकोण पैदा हो जाता है जिनके आधार पर वह किसी समाज , या व्यक्तियों के समूह , या समान विचार रखने वालों या राजनीतिक संगठन को उचित या अनुचित ठहराता है। इसका न तो कोई वैज्ञानिक आधार होता है न ही जांच पड़ताल करने की जरूरत। संक्रमित व्यक्ति उसे परम सत्य मान कर अनुसरण करना शुरू कर देते हैं
धीरे धीरे ये एक खतरनाक रूप ले लेता है और बड़े से बड़े पत्रकार, कलाकार, लेखक ,इतिहासकार, निबंधकार, बुद्धिजीवी,के सोचने समझने की ताकत और निष्पक्ष निर्णय लेने की शक्ति को पंगु बना देता है।
वैसे तो हर व्यक्ति की सोच - विचार में अंतर होता है किसी के अनुसार, कोई बात सही हो सकती है तथा किसी को वही बात गलत लग सकती है। पर विचाधारा के वायरस की चपेट में आने पर इस व्यक्तिगत प्रतिभा का लोप हो जाता है औरअधिकांश लोग किसी खास विचारधारा के प्रति आकर्षित हो जाते हैं हालाँकि ऐसी कई विचारधाराएं हमें देखने को मिलती हैं, जिनका प्रभाव न सिर्फ भारत पर है बल्कि सम्पूर्ण विश्व पर है। उन विचारधाराओं ने हमारे समाज तथा सम्पूर्ण विश्व को बहुत कुछ दिया है। पर इंसान या दुनिया के अन्य चीज़ों की तरह विचारधारा की भी एक हद होती है और समस्या तब उत्पन्न होती है हमारी सोच किसी खास विचारधारा के वायरस से ग्रसित हो जाती है ।
विचारधारा का वायरस तीन प्रकार का होता है।
दक्षिणपंथी
वामपंथी
उदारपंथी
दक्षिणपंथी वायरस से प्रभावित लोगो को राष्टवादी, फासिस्ट, हिटलरवादी, कट्टरपंथी, चरमपंथी, पाखंडी, आर्यवादी, सांप्रदायिक कहा जाता है। भारत में तो इन्हें संघी, भाजपाई, नकली देशप्रमी, और हिन्दू आतंकवादी भी कहते है।
वामपंथी वायरस से प्रभावित लोगो को परिवर्तनवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, समाजवादी, माओवादी, नक्सली आदि कहा जाता है। कार्ल मार्क्स इसके जनक थे और इन लोगो का सबसे पहला सफल प्रयोग रूस में सन 1917 में हुआ था।
उदारपंथी वायरस से प्रभावित लोग लोकतंत्र समर्थक, उदारवादी, प्रगतिशील, आधुनिक आदि कई नामो से जाने जाते है। हालाँकि भारत के अन्दर उदारपंथी, वामपंथियों की एक शाखा की तरह से ही संचालित होती है। क्योंकि इनका दुश्मन एक ही है दक्षिणपंथी विचारधारा
इस संसार में कोई एक विचारधारा ऐसी नहीं है, जो बिल्कुल सही हो। जैसे ही हम किसी विचारधारा का अंध समर्थक बन जाते हैं, हमारे अंदर का निष्पक्ष दर्शक, निष्पक्ष वक्ता तथा निष्पक्ष लेखक सब उसी दिन से मर जाता है। हमारी आंखों पर एक चश्मा लग जाता है और हम उस चश्मे से ही देखना शुरू कर देते हैं ।
उदाहरण के लिए, यदि कोई इतिहासकार किसी एक खास विचारधारा के प्रति समर्पित है तो क्या वह अपने समय का सही वर्णन कर पायेगा? उसे तो साफ-साफ दिखेगा ही नहीं। चश्मे के कारण वह किसी मुद्दे या घटना का एक ही पहलू देख पायेगा। अब सोचिये, उसके द्वारा लिखा गया इतिहास देश के भावी पाठकों को भला क्या दे पाएगा? वह चाहे तो किसी महान व्यक्तित्व को नीचा दिखा सकता है और चाहे तो किसी बिना योग्यता वाले व्यक्ति का महिमामंडन करके उसे इतिहास का शिखर पुरुष बना सकता है।
उसी तरह एक पत्रकार, एक स्तम्भकार, एक शिक्षक भी इस विचारधारा से ग्रसित होकर अपने दायित्वों से दूर चला जाता है। लाख समझाने के बाद भी वह व्यक्ति सही और गलत का निर्णय निष्पक्ष तरीके से नहीं कर पाता है। सोचने की शक्ति कम हो जाती है लेकिन हमें यह बिल्कुल भी मालूम नहीं चल पाता है। हमें लगता है कि हम जो कह रहे हैं सही है और हमारी सोच या विचारधारा सबसे महान है। उसी के आधार पर हम एक मापदण्ड तैयार कर लेते हैं तथा अपना परिणाम सुना देते हैं। उसके बाद तर्कों से उसे प्रमाणित करने का प्रयास करने लगते हैं तथा आत्ममंथन करने के बारे में सोचते भी नहीं।
जब भी कुछ लिखिए, जब भी कुछ बोलिये, बस अपने आप से एक प्रश्न कीजिये कि आप किसी विचारधारा की गिरफ्त में तो नहीं हैं ना?
हमे हमेशा खुद से प्रश्न करते रहना चाहिए यही हमारे जीवित होने का प्रमाण है । मेरे हिसाब से एक बहुत ही महत्वपूर्ण अधिकार है राय की स्वतंत्रता का अधिकार, अंतरात्मा की स्वतंत्रता का अधिकार, और सबसे महत्वपूर्ण असहमति का अधिकार.’ एक समाज जो पारंपरिक विचारधाराओ ,और पुराने नियमों से ही चिपका रहता है वो पतन की ओर जाता है ।
खुद सोचिये, फिर से सोचिये, बार-बार सोचिये। परिस्थिति के अनुसार, हर विचारधारा का सम्मान हो तथा हर विचारधारा का विरोध हो। लकीर का फकीर बन कर रहना अपनी आत्मा को बेचने जैसा है।
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