विचारधारा का वायरस 2
साम्यवाद , समाजवाद, मार्क्सवाद,
नक्सलवाद,उदारवाद, साम्राज्यवाद,
राष्ट्रवाद, आदर्शवाद,रूढ़िवाद, फासीवाद, नाज़ीवाद,अराजकतावाद,अम्बेडकरवाद,
आतंकवाद, अतिवाद, वगैरह- वगैरह
कभी-कभी तो खुद मुझे ऐसा लगने लगता है कि मैं इनमे से ही किसी विचारधारा के हाथों का खिलौना हूँ और तब मैं छटपटाने लगता हूँ एक बार आप इस चक्कर मे फंसे नही फिर बरसो या कहिये कई बार तो जीवन फिसल जाता है किसी फालतू की विचारधारा को ढोते- ढोते ।एक अच्छा इंसान बनना, किताबे पढ़ना, कहानिया-कविताए लिखना , दुनिया भर का सिनेमा और थियेटर देखना, घूमना फिरना यात्राएँ करना, भाषाएँ सीखना, संस्कृतियों को समझना , संगीत रचना, पेंटिंग में रम जाना क्या ये काफी नही है। इससे काम नही चलेगा।
क्योकि यूथ अंडर डॉग होता है विचारधारा युवाओ के गुमराह होनेवाले उत्साह को पकड़ता है। यही काम आतंकवाद भी करता है। यूथ का ब्रेनवाश कर अपने एजेंडे को बढ़ाना ।आप एक यूटोपिया में जीने लगते है । सच पूछा जाए तो इंसान को किसी विचाधारा की जरूरत ही नही होती है । एक समय की विचारधारा आगे अगर नही बदली तो सड़ांध पैदा हो जाती है क्या देश को प्यार करने के लिए किसी पार्टी , विचार या दल को भी प्यार करना पड़ेगा।महात्मा गांधी ने भी कहा था कि हर आदमी की अपनी विचारधारा होनी चाहिए।
सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या (ज्ञान) वह है जो मुक्ति प्रदान करे। ऐसे व्यक्तित्व का चरम विकास ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है जिसमें व्यक्ति आत्मानुभूति कर सत्य की प्राप्ति कर सके। न कि किसी विचारधारा का गुलाम हो जाये ।आत्मानुभूति का बोध प्राकृतिक देन नहीं है इसलिए व्यक्ति को सतत अभ्यास एवं प्रयत्न द्वारा इसे प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिये।
भारत में सदियों से मत-मतांतर पर शास्त्रार्थ होते रहे हैं; तभी कहा जाता रहा है: मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना:. देखा जाए तो भारत में तमाम भारतीय विचार दर्शनों के होते हुए भी जिस विचारधारा से यहां के बुद्धिजीवी बहुधा आक्रांत और प्रभावित रहे हैं वह है मार्क्सवादी विचारधारा.
वह जितना राजनीति में नहीं प्रभावी है, उससे ज्यादा वह लेखन में प्रभावी है. यह मान लिया गया है कि जो मार्क्सवादी नहीं है वह लेखक ही नहीं है.विचारधारा के इसी रेजीमेंटेशन को लेकर कई लेखक किसी भी विचारधारा के प्रभाव से अपने को बचाए रहे, तथा अपने लेखन में किसी भी विचारधारा को हावी नही होने दिया पर ऐसे लेखको की प्रगतिशील, वामपंथी बुद्धिजीवी लगातार उपेक्षा करते रहे.
भारत मे मार्क्सवाद ने भी ईसाइयत और इस्लाम की ही तरह aggressor के रूप में प्रवेश किया। ये विचारधाराएं जहां भी गईं, आक्रामक बनकर ही गईं। इन तीनों ही विचारधाराओं ने जिस देश की धरती पर कदम रखा उसके लोगों को अपने अतीत और परंपरा से सर्वथा अलग कर दिया। भारत में तीनों ही विचारधाराओं को हजार वर्ष से अधिक प्रयास के बाद भी आंशिक सफलता ही मिली। अस्सी प्रतिशत भारतीय समाज आज भी अपने अतीत और संस्कृति से जुड़ा है। इसका कारण समझने के लिए हमें सबसे पहले aggressors की विचारधारा के मूल में जाना पड़ेगा। ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद, तीनों ही में इस बात का समान आग्रह है कि उनकी विचारधारा के अलावा किसी अन्य विचारधारा को अस्तित्व में रहने का अधिकार नहीं है। ईसाइयत की इस विचारधारा का उदाहरण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं, जहां इस विचारधारा के लोगों ने पहुंचकर वहां के मूल निवासियों को नेस्तनाबूद कर दिया। यही नहीं बाद में ये विचारधाराएं आपस में ही टकराने लगीं।
अन्य विचारधाराओं का अस्तित्व मिटाते-मिटाते अपनी ही विचारधारा वालों से टकराने के मूल में है एकाधिकारवादी भावना, जिसकी छाया में ये विचारधाराएं पनपी हैं। इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि किसी अन्य विचारधारा के सहअस्तित्व का इनमें स्थान नहीं है। इस एकाधिकारवादी आस्था की सबसे निचली श्रेणी में मार्क्सवाद आता है।साम्यवाद का जन्म मार्क्सवाद से हुआ। कम्युनिस्टों के अध्यात्म में मार्क्स की लगभग वही जगह है, जो धर्म में ईश्वर की है- जाहिर है, कम्यूनिस्टों के लिए मार्क्स आदिपुरुष हैं। वे उस काल में भी मार्क्स को खोज लेते हैं, जिस काल में मार्क्स हुए ही नहीं थे। बिल्कुल उसी तरह, जैसे उस काल में भी ईश्वर खोज लिया जाता है, जिस काल में मनुष्य हुआ ही नहीं था। यही कारण है कि अनेक कम्युनिस्ट बड़े आराम से बोल देते हैं कि कबीर मार्क्सवादी कवि थे। यह बात अलग है कि खुद कबीर भी नहीं जानते होंगे कि वे मार्क्सवादी हैं। जानते भी कैसे? कबीर मार्क्स से बहुत पहले जो हो गए थे। अगर, मार्क्स कबीर के जमाने में हुए होते तो भी कबीर के मार्क्सवादी होने की संभावना कम थी। उलटे मार्क्स के कबीरपंथी होने की संभावना अधिक थी। भारत में मार्क्सवाद के उदय और अस्त की अवधि सबसे कम रही है। पिछले दिनों केरल में आयोजित मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि सोवियत या चीन, दोनों का ही पथ भारत के लिए अनुकूल नहीं है। हमें अपनी शक्ति को पुन: स्थापित करने के लिए भारतीय पृष्ठभूमि के अनुरूप वैचारिक और व्यावहारिक दिशा पकड़नी होगी। भारत की दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियां इस बात की उदाहरण हैं कि उन्होंने भारत के अतीत और संस्कृति से परहेज कर अपने अस्तित्व को संकट में डाला है। कम्युनिस्ट दुनिया के पहले नास्तिक नहीं हैं और नास्तिक को कठमुल्लापंथी नहीं होना चाहिए। समाज कम्युनिस्ट या किसी अन्य पार्टी के कदमों से नहीं, बल्कि बौद्धिक-सांस्कृतिक-सामाजिक प्रक्रियाओं से नास्तिक होता गया है, होता जाएगा। नास्तिकता कोई धर्म नहीं है, जो अन्य धर्मावलंबियों, मसलन आस्थावानों को स्वीकार न कर सके।
बंगाल की पराजय के बाद साम्यवादी या मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति आस्था रखने का दावा करने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच मंथन चल रहा है।(मृत्यु से कुछ समय पूर्व हिंदी के प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने घोषणा की थी कि विचारधाराएं निरर्थक साबित हो चुकी हैं। इस पर कुछ लोग हंगामे पर उतर आए। मार्क्सवादी साहित्यकारों में अब वह दम नहीं रहा जो भारत सोवियत संस्कृति संगठन के जमाने में हुआ करता था। क्यों इन लोगों में उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो सैद्धांतिक प्रतिबद्धता छोड़कर अमेरिकी दूतावास या उससे पोषित संस्थानों के समर्थक बन गए हैं। (ज्यादातर मार्क्सवादियों के बच्चे जिनमे मेरे परिवार के भी कई लोग शामिल है अमेरिका में ही पढ़ते और रहते है यहां वो ज़िन्दगी भर उनका विरोध करते और करना सिखाते है। ये कैसा फ्रॉड है) खुद ज्योति बसु ने कह दिया था कि अब पूंजीवाद के बिना समाजवाद संभव नहीं है। जिस दिन साम्यवादऔर पूंजीवाद के इस मिलन का फल पैदा होगा, उस दिन कलाजगत को एक नई कलाकृति मिलेगी। एक नया नाटक लिखा जाएगा, नाम होगा - 'साम्यवाद की अंतिम किरण से पूंजीवाद की पहली किरण तक!' यह ठीक है कि शोषण का साम्राज्यवादी तरीका अब बदल कर आर्थिक शोषण के रूप में उभरा है, लेकिन दोनों में एक मायने में समरूपता ही है-कमजोर को मत जीने दो। प्रलोभन भी शोषण का एक स्वरूप बन गया है।
आज जरूरत इस बात की है कि काउंटर टेररिज्म और कट्टरवाद पर शोधरत समुदाय इस बात के लिए रजामंद हो कि धर्म भी बस एक और विचारधारा है- जैसे राष्ट्रवाद या मार्क्सवाद या शुरुआत में लिखे दूसरे वाद हैं- जिसका इस्तेमाल सिर्फ ऐसे नैरेटिव के निर्माण के लिए किया जाता है, जिसकी मदद से ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ जोड़ा जा सके.
अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी दोनों ही मुल्कों में सांप्रदायिक सोच और दंगों का पहले राजनीतिज्ञों द्वारा विस्तार किया गया, फिर जब अधिक से अधिक लोग सांप्रदायिक सोच के सांचे में ढल गए तो ऐसे में मोबाइल, इंटरनेट, टीवी और तमाम तरह की तकनीक आ गई जिसने वर्तमान में इस सोच को बम में बदल दिया है।
जहां तक सांप्रदायिक राजनीति की बात करें तो यह भारत विभाजन से ही जारी है। विभाजन भी सांप्रदायिक आधार पर ही हुआ था। भारत की राजनीति की शुरुआत में ही सांप्रदायिकता के बीज बो दिए गए थे। आजकल राजनीति का दूसरा नाम विश्वासघात है। विश्वासघात जनता के साथ, देश के साथ और अपने धर्म के साथ। यदि हम प्रांतवादी राजनीति की बात करें तो इसका जोर महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत में ज्यादा देखने को मिलता है। हर प्रांत में क्षेत्रीय पार्टियां हैं लेकिन उनमें से कई किसी भाषा या प्रांत की राजनीति के आधार पर खड़ी नहीं हुई है।राजनीति का धर्म और समाज से गहरा नाता रहा है। राजनीति खड़ी ही की जाती है धर्म या समाज को तोड़ने के आधार पर वर्ना राजनीति चल नहीं सकती। छल, बल या अन्य किसी तरीके से समाज में फूट डालकर राज्य किया जा सकता है। राजनीति के जिंदा रहने का आधार ही समाज में फूट डालना और लोगों को भयभीत करना है। यदि आप लोगों को जब तक किसी दूसरे धर्म या राष्ट्र के खतरे के प्रति भयभीत नहीं करेंगे, तब तक लोग आपके समर्थन में नहीं होंगे। किसी भी देश का राजनीतिक दल हो या धर्म, वह आज भी इसी आधार पर समर्थन जुटाता है कि तुम असुरक्षित हो। मुल्क या धर्म खतरे में है।किसी बड़े संत ने कहा है कि'धर्म एक संगठित अपराध है। धर्मों के कारण इस धरती पर सबसे ज्यादा निर्दोष लोगों की हत्या हुई और अधिकतर लोग मारे गए।' ऐसे में यह कहना कि 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' सिर्फ मन को समझाने भर की बातें हैं।
धर्म का आविष्कार लोगों को कबीलाई संस्कृति से बाहर निकालकर सभ्य बनाने के लिए हुआ था लेकिन हालात यह है कि यही धर्म हमें फिर से असभ्य होने के लिए मजबूर कर रहा है।
संत कबीर प्रतिदिन स्नान करने के लिए गंगा तट पर जाया करते थे. एक दिन उन्होंने देखा की पानी काफी गहरा होने के कारण कुछ ब्राह्मणों को जल में घुसकर स्नान करने का साहस नहीं हो रहा है. उन्होंने अपना लोटा मांज धोकर एक व्यक्ति को दिया और कहा की जाओ ब्राह्मणों को दे आओ ताकि वे भी सुविधा से गंगा स्नान कर लें।कबीर का लोटा देखकर ब्राह्मण चिल्ला उठे–अरे जुलाहे के लोटे को दूर रखो. इससे गंगा स्नान करके तो हम अपवित्र हो जायेंगे. कबीर आश्चर्यचकित होकर बोले–इस लोटे को कई बार मिट्टी से मांजा और गंगा जल से धोया, फिर भी साफ़ न हुआ तो दुर्भावनाओं से भरा यह मानव शरीर गंगा में स्नान करने से कैसे पवित्र होगा?
जितने वाद है सभी पर विवाद है ।कोई निष्कलंक नही।
कहने के लिए ये सारे मत हैं और मतांतर भी है परंतु
उद्देश्य सामाजिक है -आत्मोद्धार, मानवता की सेवा और जीव मात्र की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ।
मैं बस यही प्रार्थना करता हूँ कि हर व्यक्ति अपनी मौलिकता को बनाये रखे आपकी जीवनशैली ही आपकी विचारधारा है ।इसे किसी और से प्रभावित होकर बिगड़ने मत दीजिये ताकि यह देश और इसके देशवासी किसी भी मुद्दे को सही तथा गलत कहने से पूर्व कई बार सोचें। याद रहे, सबकुछ बिक जाए, अपनी निष्पक्षता को बिकने मत दीजिये। अपनी निष्पक्षता को घायल मत होने दीजिए। यही निष्पक्षता आपकी विशिष्टता है। जिसे व्यक्तिगत विकास, सामाजिक सेवा और समाज में आसपास के परिवर्तन के लिए एक व्यावहारिक दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है।क्या पता आपकी निष्पक्षता आपकी लेखनी इस दुनिया को बहुत कुछ देकर जाए।
चर्चा चालू आहे -
साम्यवाद , समाजवाद, मार्क्सवाद,
नक्सलवाद,उदारवाद, साम्राज्यवाद,
राष्ट्रवाद, आदर्शवाद,रूढ़िवाद, फासीवाद, नाज़ीवाद,अराजकतावाद,अम्बेडकरवाद,
आतंकवाद, अतिवाद, वगैरह- वगैरह
कभी-कभी तो खुद मुझे ऐसा लगने लगता है कि मैं इनमे से ही किसी विचारधारा के हाथों का खिलौना हूँ और तब मैं छटपटाने लगता हूँ एक बार आप इस चक्कर मे फंसे नही फिर बरसो या कहिये कई बार तो जीवन फिसल जाता है किसी फालतू की विचारधारा को ढोते- ढोते ।एक अच्छा इंसान बनना, किताबे पढ़ना, कहानिया-कविताए लिखना , दुनिया भर का सिनेमा और थियेटर देखना, घूमना फिरना यात्राएँ करना, भाषाएँ सीखना, संस्कृतियों को समझना , संगीत रचना, पेंटिंग में रम जाना क्या ये काफी नही है। इससे काम नही चलेगा।
क्योकि यूथ अंडर डॉग होता है विचारधारा युवाओ के गुमराह होनेवाले उत्साह को पकड़ता है। यही काम आतंकवाद भी करता है। यूथ का ब्रेनवाश कर अपने एजेंडे को बढ़ाना ।आप एक यूटोपिया में जीने लगते है । सच पूछा जाए तो इंसान को किसी विचाधारा की जरूरत ही नही होती है । एक समय की विचारधारा आगे अगर नही बदली तो सड़ांध पैदा हो जाती है क्या देश को प्यार करने के लिए किसी पार्टी , विचार या दल को भी प्यार करना पड़ेगा।महात्मा गांधी ने भी कहा था कि हर आदमी की अपनी विचारधारा होनी चाहिए।
सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या (ज्ञान) वह है जो मुक्ति प्रदान करे। ऐसे व्यक्तित्व का चरम विकास ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है जिसमें व्यक्ति आत्मानुभूति कर सत्य की प्राप्ति कर सके। न कि किसी विचारधारा का गुलाम हो जाये ।आत्मानुभूति का बोध प्राकृतिक देन नहीं है इसलिए व्यक्ति को सतत अभ्यास एवं प्रयत्न द्वारा इसे प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिये।
भारत में सदियों से मत-मतांतर पर शास्त्रार्थ होते रहे हैं; तभी कहा जाता रहा है: मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना:. देखा जाए तो भारत में तमाम भारतीय विचार दर्शनों के होते हुए भी जिस विचारधारा से यहां के बुद्धिजीवी बहुधा आक्रांत और प्रभावित रहे हैं वह है मार्क्सवादी विचारधारा.
वह जितना राजनीति में नहीं प्रभावी है, उससे ज्यादा वह लेखन में प्रभावी है. यह मान लिया गया है कि जो मार्क्सवादी नहीं है वह लेखक ही नहीं है.विचारधारा के इसी रेजीमेंटेशन को लेकर कई लेखक किसी भी विचारधारा के प्रभाव से अपने को बचाए रहे, तथा अपने लेखन में किसी भी विचारधारा को हावी नही होने दिया पर ऐसे लेखको की प्रगतिशील, वामपंथी बुद्धिजीवी लगातार उपेक्षा करते रहे.
भारत मे मार्क्सवाद ने भी ईसाइयत और इस्लाम की ही तरह aggressor के रूप में प्रवेश किया। ये विचारधाराएं जहां भी गईं, आक्रामक बनकर ही गईं। इन तीनों ही विचारधाराओं ने जिस देश की धरती पर कदम रखा उसके लोगों को अपने अतीत और परंपरा से सर्वथा अलग कर दिया। भारत में तीनों ही विचारधाराओं को हजार वर्ष से अधिक प्रयास के बाद भी आंशिक सफलता ही मिली। अस्सी प्रतिशत भारतीय समाज आज भी अपने अतीत और संस्कृति से जुड़ा है। इसका कारण समझने के लिए हमें सबसे पहले aggressors की विचारधारा के मूल में जाना पड़ेगा। ईसाइयत, इस्लाम और मार्क्सवाद, तीनों ही में इस बात का समान आग्रह है कि उनकी विचारधारा के अलावा किसी अन्य विचारधारा को अस्तित्व में रहने का अधिकार नहीं है। ईसाइयत की इस विचारधारा का उदाहरण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं, जहां इस विचारधारा के लोगों ने पहुंचकर वहां के मूल निवासियों को नेस्तनाबूद कर दिया। यही नहीं बाद में ये विचारधाराएं आपस में ही टकराने लगीं।
अन्य विचारधाराओं का अस्तित्व मिटाते-मिटाते अपनी ही विचारधारा वालों से टकराने के मूल में है एकाधिकारवादी भावना, जिसकी छाया में ये विचारधाराएं पनपी हैं। इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि किसी अन्य विचारधारा के सहअस्तित्व का इनमें स्थान नहीं है। इस एकाधिकारवादी आस्था की सबसे निचली श्रेणी में मार्क्सवाद आता है।साम्यवाद का जन्म मार्क्सवाद से हुआ। कम्युनिस्टों के अध्यात्म में मार्क्स की लगभग वही जगह है, जो धर्म में ईश्वर की है- जाहिर है, कम्यूनिस्टों के लिए मार्क्स आदिपुरुष हैं। वे उस काल में भी मार्क्स को खोज लेते हैं, जिस काल में मार्क्स हुए ही नहीं थे। बिल्कुल उसी तरह, जैसे उस काल में भी ईश्वर खोज लिया जाता है, जिस काल में मनुष्य हुआ ही नहीं था। यही कारण है कि अनेक कम्युनिस्ट बड़े आराम से बोल देते हैं कि कबीर मार्क्सवादी कवि थे। यह बात अलग है कि खुद कबीर भी नहीं जानते होंगे कि वे मार्क्सवादी हैं। जानते भी कैसे? कबीर मार्क्स से बहुत पहले जो हो गए थे। अगर, मार्क्स कबीर के जमाने में हुए होते तो भी कबीर के मार्क्सवादी होने की संभावना कम थी। उलटे मार्क्स के कबीरपंथी होने की संभावना अधिक थी। भारत में मार्क्सवाद के उदय और अस्त की अवधि सबसे कम रही है। पिछले दिनों केरल में आयोजित मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि सोवियत या चीन, दोनों का ही पथ भारत के लिए अनुकूल नहीं है। हमें अपनी शक्ति को पुन: स्थापित करने के लिए भारतीय पृष्ठभूमि के अनुरूप वैचारिक और व्यावहारिक दिशा पकड़नी होगी। भारत की दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टियां इस बात की उदाहरण हैं कि उन्होंने भारत के अतीत और संस्कृति से परहेज कर अपने अस्तित्व को संकट में डाला है। कम्युनिस्ट दुनिया के पहले नास्तिक नहीं हैं और नास्तिक को कठमुल्लापंथी नहीं होना चाहिए। समाज कम्युनिस्ट या किसी अन्य पार्टी के कदमों से नहीं, बल्कि बौद्धिक-सांस्कृतिक-सामाजिक प्रक्रियाओं से नास्तिक होता गया है, होता जाएगा। नास्तिकता कोई धर्म नहीं है, जो अन्य धर्मावलंबियों, मसलन आस्थावानों को स्वीकार न कर सके।
बंगाल की पराजय के बाद साम्यवादी या मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति आस्था रखने का दावा करने वाले लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच मंथन चल रहा है।(मृत्यु से कुछ समय पूर्व हिंदी के प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने घोषणा की थी कि विचारधाराएं निरर्थक साबित हो चुकी हैं। इस पर कुछ लोग हंगामे पर उतर आए। मार्क्सवादी साहित्यकारों में अब वह दम नहीं रहा जो भारत सोवियत संस्कृति संगठन के जमाने में हुआ करता था। क्यों इन लोगों में उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो सैद्धांतिक प्रतिबद्धता छोड़कर अमेरिकी दूतावास या उससे पोषित संस्थानों के समर्थक बन गए हैं। (ज्यादातर मार्क्सवादियों के बच्चे जिनमे मेरे परिवार के भी कई लोग शामिल है अमेरिका में ही पढ़ते और रहते है यहां वो ज़िन्दगी भर उनका विरोध करते और करना सिखाते है। ये कैसा फ्रॉड है) खुद ज्योति बसु ने कह दिया था कि अब पूंजीवाद के बिना समाजवाद संभव नहीं है। जिस दिन साम्यवादऔर पूंजीवाद के इस मिलन का फल पैदा होगा, उस दिन कलाजगत को एक नई कलाकृति मिलेगी। एक नया नाटक लिखा जाएगा, नाम होगा - 'साम्यवाद की अंतिम किरण से पूंजीवाद की पहली किरण तक!' यह ठीक है कि शोषण का साम्राज्यवादी तरीका अब बदल कर आर्थिक शोषण के रूप में उभरा है, लेकिन दोनों में एक मायने में समरूपता ही है-कमजोर को मत जीने दो। प्रलोभन भी शोषण का एक स्वरूप बन गया है।
आज जरूरत इस बात की है कि काउंटर टेररिज्म और कट्टरवाद पर शोधरत समुदाय इस बात के लिए रजामंद हो कि धर्म भी बस एक और विचारधारा है- जैसे राष्ट्रवाद या मार्क्सवाद या शुरुआत में लिखे दूसरे वाद हैं- जिसका इस्तेमाल सिर्फ ऐसे नैरेटिव के निर्माण के लिए किया जाता है, जिसकी मदद से ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ जोड़ा जा सके.
अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी दोनों ही मुल्कों में सांप्रदायिक सोच और दंगों का पहले राजनीतिज्ञों द्वारा विस्तार किया गया, फिर जब अधिक से अधिक लोग सांप्रदायिक सोच के सांचे में ढल गए तो ऐसे में मोबाइल, इंटरनेट, टीवी और तमाम तरह की तकनीक आ गई जिसने वर्तमान में इस सोच को बम में बदल दिया है।
जहां तक सांप्रदायिक राजनीति की बात करें तो यह भारत विभाजन से ही जारी है। विभाजन भी सांप्रदायिक आधार पर ही हुआ था। भारत की राजनीति की शुरुआत में ही सांप्रदायिकता के बीज बो दिए गए थे। आजकल राजनीति का दूसरा नाम विश्वासघात है। विश्वासघात जनता के साथ, देश के साथ और अपने धर्म के साथ। यदि हम प्रांतवादी राजनीति की बात करें तो इसका जोर महाराष्ट्र सहित दक्षिण भारत में ज्यादा देखने को मिलता है। हर प्रांत में क्षेत्रीय पार्टियां हैं लेकिन उनमें से कई किसी भाषा या प्रांत की राजनीति के आधार पर खड़ी नहीं हुई है।राजनीति का धर्म और समाज से गहरा नाता रहा है। राजनीति खड़ी ही की जाती है धर्म या समाज को तोड़ने के आधार पर वर्ना राजनीति चल नहीं सकती। छल, बल या अन्य किसी तरीके से समाज में फूट डालकर राज्य किया जा सकता है। राजनीति के जिंदा रहने का आधार ही समाज में फूट डालना और लोगों को भयभीत करना है। यदि आप लोगों को जब तक किसी दूसरे धर्म या राष्ट्र के खतरे के प्रति भयभीत नहीं करेंगे, तब तक लोग आपके समर्थन में नहीं होंगे। किसी भी देश का राजनीतिक दल हो या धर्म, वह आज भी इसी आधार पर समर्थन जुटाता है कि तुम असुरक्षित हो। मुल्क या धर्म खतरे में है।किसी बड़े संत ने कहा है कि'धर्म एक संगठित अपराध है। धर्मों के कारण इस धरती पर सबसे ज्यादा निर्दोष लोगों की हत्या हुई और अधिकतर लोग मारे गए।' ऐसे में यह कहना कि 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' सिर्फ मन को समझाने भर की बातें हैं।
धर्म का आविष्कार लोगों को कबीलाई संस्कृति से बाहर निकालकर सभ्य बनाने के लिए हुआ था लेकिन हालात यह है कि यही धर्म हमें फिर से असभ्य होने के लिए मजबूर कर रहा है।
संत कबीर प्रतिदिन स्नान करने के लिए गंगा तट पर जाया करते थे. एक दिन उन्होंने देखा की पानी काफी गहरा होने के कारण कुछ ब्राह्मणों को जल में घुसकर स्नान करने का साहस नहीं हो रहा है. उन्होंने अपना लोटा मांज धोकर एक व्यक्ति को दिया और कहा की जाओ ब्राह्मणों को दे आओ ताकि वे भी सुविधा से गंगा स्नान कर लें।कबीर का लोटा देखकर ब्राह्मण चिल्ला उठे–अरे जुलाहे के लोटे को दूर रखो. इससे गंगा स्नान करके तो हम अपवित्र हो जायेंगे. कबीर आश्चर्यचकित होकर बोले–इस लोटे को कई बार मिट्टी से मांजा और गंगा जल से धोया, फिर भी साफ़ न हुआ तो दुर्भावनाओं से भरा यह मानव शरीर गंगा में स्नान करने से कैसे पवित्र होगा?
जितने वाद है सभी पर विवाद है ।कोई निष्कलंक नही।
कहने के लिए ये सारे मत हैं और मतांतर भी है परंतु
उद्देश्य सामाजिक है -आत्मोद्धार, मानवता की सेवा और जीव मात्र की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ।
मैं बस यही प्रार्थना करता हूँ कि हर व्यक्ति अपनी मौलिकता को बनाये रखे आपकी जीवनशैली ही आपकी विचारधारा है ।इसे किसी और से प्रभावित होकर बिगड़ने मत दीजिये ताकि यह देश और इसके देशवासी किसी भी मुद्दे को सही तथा गलत कहने से पूर्व कई बार सोचें। याद रहे, सबकुछ बिक जाए, अपनी निष्पक्षता को बिकने मत दीजिये। अपनी निष्पक्षता को घायल मत होने दीजिए। यही निष्पक्षता आपकी विशिष्टता है। जिसे व्यक्तिगत विकास, सामाजिक सेवा और समाज में आसपास के परिवर्तन के लिए एक व्यावहारिक दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है।क्या पता आपकी निष्पक्षता आपकी लेखनी इस दुनिया को बहुत कुछ देकर जाए।
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